प्रतिवर्ष माताएं अपने संतान के लिए जीवित्पुत्रिका (बेटा जुतिया) व्रत रखती हैं। यह व्रत हर साल अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तारीख को रखा जाता है।इस साल 6 अक्टूबर, शुक्रवार को मनाया जाएगा।इस दिन माताएं अपने संतान के खुशहाली व लंबी आयु के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। साथ ही निसंतान महिलाएं भी अपने संतान की कामना रखने की प्राप्ति के लिए यह व्रत रखती हैं। इस व्रत को जीवित्पुत्रिका व्रत, स्थानीय भाषा में बेटा जितिया या बेटा जुतिया व्रत भी कहते है। इस दिन माताएं अपनी संतान (पुत्र, पुत्री) की खुशहाली व लंबी आयु के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। जितिया व्रत नहाय खाय से शुरू होकर सप्तमी, आष्टमी और नवमी तक चलता है। इस इस दौरान मां पुत्र प्राप्ति के लिए भी यह उपवास करती है। यह एक निर्जला व्रत है। कहा जाता है ये व्रत महाभारत के समय से रखा जाता आ रहा है। जब द्रोणाचार्य का वध हो गया था तो उनके बेटे अश्वत्थामा ने आक्रोशित होकर ब्रह्मास्त्र चला दिया था। जिससे अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहा शिशु नष्ट हो चुका था। फिर अभिमन्यु की पत्नी ने ये व्रत किया और इसके बाद, श्रीकृष्ण ने शिशु को फिर जीवित कर दिया। तभी से महिलाएं अपने बच्चे की लंबी उम्र के लिए ये उपवास करती है। कहते हैं जो महिलाएं इस व्रत को करती हैं, उनके बच्चे चारों दिशाओं में प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं।
पौराणिक मान्यताएं
मां लक्ष्मी को धन की देवी है। महालक्ष्मी की पूजा घर और कारोबार में सुख और समृद्धि लाने के लिए की जाती है। महालक्ष्मी मंदिर के मुख्य द्वार पर सुंदर नक्काशी की गई है। मंदिर परिसर में विभिन्न देवी-देवताओं की आकर्षक प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर के गर्भगृह में महालक्ष्मी, महाकाली एवं महासरस्वती तीनों देवियों की प्रतिमाएं एक साथ विद्यमान हैं। तीनों प्रतिमाओं को सोने एवं मोतियों के आभूषणों से सुसज्जित किया गया है। यहां आने वाले हर भक्त का यह दृढ़ विश्वास होता है कि माता उनकी हर इच्छा जरूर पूरी करेंगी। महालक्ष्मी व्रत से आप साल भर की आमदनी का इंतजाम कर सकते हैं। महालक्ष्मी व्रत पूरे 15 दिन चलता है। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत से गरीबी हमेशा-हमेशा के लिए चली जाती है। महालक्ष्मी के महाव्रत से आप अपने घर के आंगन में धन की बरसात भी कर सकते हैं। 15 दिन के व्रत का समापन 5 अक्टूबर को होगा। शक्ति पीठों में शक्ती मां उपशिथ होकर जन कल्याण के लिये भक्त जनों का परिपालन करती है। काशी की शक्ति पीठं बहुत ही सुप्रसिद्ध है क्योंकि यहां जो भी अपने विचारों को प्रकट करता है वो तुरंत मां जी के आशीर्वाद से पूरा हो जाता है या उस व्यक्ति मुक्ति पाकर उसका जनम सफल हो जाता है। भगवान विष्णु के पत्नी होने के नाते इस मंदिर का नाम माता महालक्ष्मी से जोड़ा हुआ है और यहाँ के लोग इस जगह में महाविष्णु महालक्ष्मी के साथ निवास करते हुए लोक परिपालन करने का विशवास करते है। मंदिर के अन्दर नवग्रहों, भगवान सूर्य, महिषासुर मर्धिनी, विट्टल रखमाई, शिवजी, विष्णु, तुलजा भवानी आदी देवी देवताओं को पूजा करने का स्थल भी दिखाई देते हैं। इन प्रतिमाओं में से कुछ 11 वीं सदी के हो सकते हैं, जबकि कुछ हाल ही मूल के हैं। इसके अलावा आंगन में स्थित मणिकर्णिका कुंड के तट पर विश्वेश्वर महादेव मंदिर भी स्थित हैं।
पूजन विधि
महालक्ष्मी व्रत के दौरान शाकाहारी भोजन करें। पान के पत्तों से सजे कलश में पानी भरकर मंदिर में रखें। कलश के ऊपर नारियल रखें। कलश के चारों तरफ लाल धागा बांधे और कलश को लाल कपड़े से अच्छी तरह से सजाएं। कलश पर कुमकुम से स्वास्तिक बनाएं। स्वास्तिक बनाने से जीवन में पवित्रता और समृद्धि आती है। कलश में चावल और सिक्के डालें। इसके बाद इस कलश को महालक्ष्मी के पूजास्थल पर रखें। कलश के पास हल्दी से कमल बनाकर उस पर माता लक्ष्मी की मूर्ति प्रतिष्ठित करें। मिट्टी का हाथी बाजार से लाकर या घर में बना कर उसे स्वर्णाभूषणों से सजाएं। नया खरीदा सोना, हाथी पर रखने से पूजा का विशेष लाभ मिलता है। माता लक्ष्मी की मूर्ति के सामने श्रीयंत्र भी रखें। कमल के फूल से पूजन करें। सोने-चांदी के सिक्के, मिठाई व फल भी रखें। इसके बाद माता लक्ष्मी के आठ रूपों की इन मंत्रों के साथ कुंकुम, चावल और फूल चढ़ाते हुए पूजा करें। इन आठ रूपों में मां लक्ष्मी की पूजा करें- श्री धन लक्ष्मी मां, श्री गज लक्ष्मी मां, श्री वीर लक्ष्मी मां, श्री ऐश्वर्या लक्ष्मी मां, श्री विजय लक्ष्मी मां, श्री आदि लक्ष्मी मां, श्री धान्य लक्ष्मी मां और श्री संतान लक्ष्मी मां। माता जीउत व्रत भी अष्टमी की उदयातिथि में रखा जाता है। नवमी तिथि में पारण करने का विधान शास्त्र सम्मत है। इसके एक दिन पूर्व व्रत रखने वाली माताओं को मुख शुद्धि के साथ ही मडुंवा के आटे (विश्वामित्री) का पराठा, सतपुतिया सहित विभिन्न पकवान खाने का विधान प्रचलित है।
जिउतिया व्रत की कथा
माताएं इस व्रत को अपार श्रद्धा के साथ करती हैं। जीवित्पुत्रिका व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुडी है। कहा जाता है कि गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे बड़े उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया, किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोड़कर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए। वहीं पर उनका मलयवती नाम की राजकन्या से विवाह हो गया। एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी। इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया, मैं नागवंश की स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है। पक्षीराज गरुड़ के सामने नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है। आज मेरे पुत्र शंखचूड़ की बलि का दिन है। जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा, डरो मत मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढककर वध्य-शिला पर लेटूंगा। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड़ के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड़ बडे वेग से आए और वे लाल कपड़े में ढके जीमूतवाहनको पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए। अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुड़जी बड़े आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया। गरुड़जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। प्रसन्न होकर गरुड़जी ने उनको जीवनदान दे दिया। साथ ही नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई। तभी से पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहनकी पूजा की प्रथा शुरू हो गई।
लेखक : सुरेश गांधी, वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार हैं