–22 साल किया इंतजार, अब 5 साल और करना होगा
-भाजपा के चाणक्य अमित शाह की रणनीति भी हुई धराशायी
–खुद शाह ने संभाला था मोर्चा, पीएम मोदी ने भी की रैलियां
-70 सीट के लिए उतारे थे 300 सांसद, मुख्यमंत्री, सभी केंद्रीय मंत्री
–साहिब सिंह व मदन लाल खुराना जैसे नेता नहीं पैदा कर पाई बीजेपी
–शाहीन बाग व राष्ट्रीय मुद्दे से सियासत तो गरमाई, लेकिन कुर्सी खिसकी
(एके सक्सेना)
नई दिल्ली /टीम डिजिटल : त्रेता युग में भगवान श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास मिला था। कलयुग में उन्हीं की अनुयायी पार्टी भारतीय जनता पार्टी को दिल्ली में 27 वर्ष का वनवास मिल गया। पहले यह वनवास 22 साल का था, लेकिन केजरीवाल की आंधी में वनवास की अवधि और बढ़ गई। बीजेपी के आंकड़ों में भले ही सुधार हुआ है, मगर उसका वनवास खत्म नहीं हो पाया है। हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा का वोट प्रतिशत इस बार बढ़ा है। 2015 के चुनाव में 23 फीसदी था, जो इस बार अभी तक 40 फीसदी के आसपास है। कांग्रेस की पिछली बार की तरह इस बार भी करारी हार हुई है। दिल्ली में कांग्रेस का कहीं खाता भी नहीं खुला।
साल 2015 के विधानसभा चुनाव में आम आमदी पार्टी ने 70 सीटों में से 67 सीटें अपने नाम की थी। उस चुनाव में बीजेपी को महज 3 सीटें हाथ लगी थी और कांग्रेस का खाता भी नहीं खुल पाया था। आम आदमी पार्टी की तुलना में भारतीय जनता पार्टी ने अपना मुख्यमंत्री चेहरा भी नहीं उतारा था। प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी की अगुवाई में भाजपा मैदान में उतरी जरूर थी, लेकिन बाकी दिल्ली के लोग उन्हें पसंद नहीं कर रहे थे। यही कारण है कि जाट और वैश्य वोट एवं नेता शुरू से खिलाफ हो गए थे। नतीजन, पूर्वांचली होने के बावजूद मनोज तिवारी पूर्वांचल का वोट भी नहीं जुटा पाए।
दिल्ली में भाजपा के ताकतवर नेताओं साहिब सिंह वर्मा और मदन लाल खुराना के बाद पार्टी ने कोई ऐसा दिल्ली में चेहरा नहीं पैदा कर पाई, जो दिल्ली में पार्टी का कमल खिला सके। साथ ही वनवास खत्म कर पाए। साहिब सिंह वर्मा जाट समुदाय से जुड़े थे, जबकि मदन लाल खुराना पंजाबी समुदाय से। दोनों ही बारी-बारी से दिल्ली के मुख्यमंत्री भी बने। लेकिन इनके जाने के बाद भाजपा दिल्ली को ताकतवर चेहरा नहीं दे सकी। यही वजह है कि भाजपा का वनवास बढ़ता जा रहा है।
इस बार भाजपा ने केजरीवाल के खिलाफ कोई चेहरा तो नहीं दिया लेकिन उन्हें हराने के लिए पार्टी ने पूरी फौज मैदान में उतार दिया। चुनाव की कमान खुद गृहमंत्री अमित शाह ने संभाला। इसके अलावा सभी राष्ट्रीय नेताओं ने चुनाव में पूरा दम लगा दिया। खुद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह दिल्ली के दंगल में कूदे और गली-गली में प्रचार करने के लिए उतरे। इसके अलावा भाजपा शासित राज्यों के सभी मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, राज्यों के मंत्री, सभी केंद्रीय मंत्री, देशभर के पार्टी सांसदों और मंत्रियों को बड़ी संख्या में दिल्ली की गलियों में उतारा गया।
राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नडड़ा विधानसभा चुनाव के एैन वक्त पर गद्दी संभाली थी। यहां तक की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद दो बड़ी रैलियां की। पहली रैली पूर्वी दिल्ली के कड़कडड़ूमा और दूसरी रैली द्वारका के रामलीला मैदान में की। इस दौरान केजरीवाल की जमकर नाकामियां भी गिनाई। बावजूद इसके दिल्ली की जनता एक बार फिर से अरविंद केजरीवाल पर भरोसा जता दिया। इस चुनाव ने सियासत के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह के चक्रव्यूह पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। साथ ही दिल्ली फतह को लेकर बनी उनकी बड़ी रणनीति को भी अरविंद केजरीवाल ने ध्वस्त कर दिया।
बीजेपी दिल्ली के दंगल में लेट से कूदी। शाहीनबाग से माहौल बदलने की कोशिश हुई। शुरुआत में केजरीवाल की हवा तेज थी लेकिन भाजपा के चाणक्य कहे जाते अमित शाह के आक्रामक प्रचार ने हालात बदल दिए, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। केजरीवाल ने बेहद चालाकी से दिल्ली के मुद्दों पर फोकस करना जारी रखा। ये आप के पक्ष में गया।
दिल्ली के दंगल ने कई राजनैतिक संदेश दिए
दिल्ली के दंगल ने कई राजनैतिक संदेश दिए हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़, पंजाब, महाराष्ट्र, झारखंड के बाद दिल्ली ने साबित किया है कि विधानसभा चुनाव में जनता स्थानीय मुद्दों को तरजीह देती है। शाहीनबाग का मुद्दा भले ही गले नहीं उतरा हो लेकिन बीजेपी ने अपनी स्थिति मजबूत जरूर की है। दिल्ली के दंगल में सीधी जंग बीजेपी और केजरीवाल के बीच हुई। चुनाव की घोषणा के समय तो ये लड़ाई भी एकतरफा मानी जा रही थी। बाद में बीजेपी ने वापसी की। इस वापसी का इंजन बना राष्ट्रीय मुद्दे, पीएम नरेंद्र मोदी का चेहरा और शाहीनबाग। दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल बिजली – पानी जैसे बुनियादी मुद्दों को उठाते रहे।
केजरीवाल की व्यक्तिगत छवि का फायदा
अरविंद केजरीवाल की व्यक्तिगत छवि का फायदा भी आप को मिला। जैसे केंद्र में नरेंद्र मोदी की छवि है वैसे ही आप कार्यकर्ताओं ने केजरीवाल की छवि पेश की। उन पर भ्रष्टाचार के कोई बड़े आरोप नहीं है। जो थे वो साबित नहीं हो पाए। आम लोगों तक उनकी आसान पहुंच ने भी आप की लोकप्रियता बनाए रखी। उन्होंने मैनिफेस्टो में जो वादे किए हैं उस पर दिल्ली ने ज्यादा भरोसा जताया। शीला दीक्षित से भी उनकी तुलना की जा सकती है। जिस तरह शीला ने स्थानीय विकास के मुद्दे पर तीन बार सत्ता हासिल की, उसी तर्ज पर केजरीवाल बढ़ते हुए दिखाई दे रहे हैं।
दिल्ली में बीजेपी के पास कोई चेहरा नहीं था
दिल्ली में बीजेपी के पास कोई चेहरा नहीं था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर 2014 से 2018 के बीच बीजेपी ने कई विधानसभा चुनाव जीते, लेकिन 2018 से ट्रेंड बदल गया। गुजरात में कांग्रेस ने बीजेपी को टफ फाइट दी। राजस्थान-मध्य प्रदेश में पार्टी को शिकस्त मिली। स्थानीय नेतृत्व को उभारने और प्रमुखता देने के बदले मोदी पर निर्भरता ने बीजेपी का नुकसान किया। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दिल्ली की सभी सातों सीटों को जीता, लेकिन ठीक 8 महीने बाद हुए दिल्ली चुनाव में भाजपा बुरी तरह हार गई। दिल्ली में मनोज तिवारी बीजेपी के अध्यक्ष हैं, लेकिन कभी भी उन्हें सीएम पद का उम्मीदवार नहीं बताया गया। पार्टी ने मोदी के चेहरे पर ही भरोसा किया। मतलब साफ है कि पार्टी ने स्थानीय चुनावों के ट्रेंड को नहीं समझा।