-मुख्यमंत्री चेहरों को लेकर भाजपा ‘हाईकमान करता रहा कार्यकर्ताओं की अनसुनी
– लगातार छठें राज्य में हुई अनदेखी, भाजपा ने खाई मात
– झारखंड की हार से क्या सबक लेगी भाजपा हाईकमान
(विनोद मिश्रा )
नई दिल्ली : मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा और अब झारखंड, भाजपा की जमीन खिसक गई। झारखंड के चुनाव परिणाम से एक बात तो साफ हो गई है कि भाजपा हाईकमान ने जहां भी पार्टी कार्यकर्ताओं की मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर की शिकायतों को अनदेखा किया वहां के चुनाव में जनता ने भाजपा की अनदेखी की। बात केवल झारखंड की नहीं। इससे पहले महाराष्ट्र,हरियाणा और उससे पहले राजस्थान,मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ में भी कार्यकर्ताओं की शिकायतों बाद भी मुख्यमंत्री पद के चेहरों को नहीं बदला। नतीजा यह रहा कि ये तीनो राज्य भी भाजपा के हाथ से निकल गए। हाल ही में दिल्ली से सटे हरियाणा राज्य के मुख्यमंत्री मनोहर लाल का शुरू से विरोध हो रहा था।
मनोहर लाल के बीता 5 साल के कार्यकाल में लगातार उन्हें बदलने का दबाव भाजपाई करते रहे, लेकिन पार्टी हाईकमान ने उन्हें आखिरी समय तक नहीं बदला। बल्कि 2019 के विधानसभा चुनाव के लिए फिर मनोहर हाल को चेहरे पर चुनाव लड़ा। रिजल्ट क्या रहा, सभी को पता है। यही हाल महाराष्ट्र में भी रहा। वहां कुछ दिन पहले तक भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री रहे देवेंद्र फर्डवीस का भी महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली भाजपा मुख्यालय तक विरोध हुआ। उन्हें बदलने का दबाव भी बना, लेकिन हाईकमान किसी की नहीं सुनी और दूसरी बार उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा बना दिया।
रिजल्ट ये रहा कि 2014 की तुलना में 21 सीटें भाजपा गवां दी। नाटकीय तरीके से कुछ घंटे के लिए दोबारा सरकार तो बनी, लेकिन बाद में इस्तीफा देना पड़ा। अब शिवसेना गठबंधन की सरकार काबिज है। इसी तरह एक वर्ष पहले तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्रियों को बदलने का दबाव स्थानीय कार्यकर्ताओं द्वारा बनाया जाता रहा। राजस्थान को छोड़ दें तो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15 साल से भाजपा की सरकारें काबिज थी। बावजूद इसके भाजपा हाईकमान ने कार्यकर्ताओं और नेताओं की एक न सुनी। इन पांच राज्यों से सबक न लेते हुए भाजपा हाईकमान ने झारखंड में भी अपनी मनमानी की और रघुबर दास को मुख्यमंत्री प्रत्याशी घेाषित कर दिया।
सूत्रों की माने तो उन पांच राज्यों से ज्यादा झारखंड में रघुबर दास का विरोध हो रहा था। समूची प्रदेश कार्यकारिणी रघुबर दास के खिलाफ थी। बावजूद इसके रघुबर को कप्तान घोषित कर भाजपा मैदान में उतर गई। नतीजा, यह रहा कि पांच साल तक सत्ता चलाने वाले रघुबर दास अपनी ही सीट बचाने में कामयाब नहीं हुए। सूत्रों की माने तो भाजपा नेताओं एवं कार्यकर्ताओं के प्रति रघुवर दास का रवैया बेहद खराब रहता था। यही कारण है कि कार्यकर्ताओं ने उन्हें सबक सिखाने की ठान ली थी।
रघुबर दास अपने पक्ष में खास लोकप्रियता नहीं बटोर सके
प्रदेश में पांच साल सरकार चलाने वाले रघुबर दास अपने पक्ष में खास लोकप्रियता नहीं बटोर सके। इसके अलावा उन्हें चुनाव में स्थानीय नेताओं की नाराजगी का भी सामना करना पड़ा। बीजेपी के टिकट बंटवारे में रघुबर दास अपनी इच्छा के अनुरूप प्रत्याशी बनाते रहे, इसके कारण पार्टी के आंतरिक संगठन में रघुबर दास को लेकर जमकर विरोध देखने को मिला। इसके साथ ही सरयू राय जैसे सीनियर पार्टी नेताओं की बीजेपी से बगावत का असर पूरे राज्य में देखने को मिला, जिसके कारण बीजेपी के वोटर भी पार्टी की विजय के प्रति आशंकित दिखे।
कांग्रेस मुक्त नारा देने वाली भाजपा को अब यह समझना होगा कि जिस बूथ के कार्यकर्ता को अपने से जोड़ वह भाजपा की लहर देश में लाए उसकी शिकायत नहीं सुनी तो जनता उन्हें चुनाव में ऐसी सुनाएगी कि उन्हें अपनी बात जनता से कहने के लिए अगले चुनाव तक इंतजार करना होगा।
मुख्य नेताओं को साइडलाइन करते रहे रघुबर
झारखंड की सत्ता के शीर्ष पर रहे रघुबर दास की कार्यशैली कई बार बीजेपी के लिए परेशानी का कारण बनी। रघुबर दास ने 2019 के विधानसभा चुनावों में पार्टी के शीर्षतम नेताओं में से एक और झारखंड के प्रमुख आदिवासी नेता अर्जुन मुंडा समर्थकों को टिकट देने से इनकार कर दिया। मुंडा के समर्थक सभी 11 विधायकों के टिकट काट दिए गए। इसके अलावा रघुबर ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष सुदेश महतो को भी साइडलाइन करते रहे। गठबंधन में रहते हुए आजसू अध्यक्ष सुदेश महतो ने एक प्रकार से राज्य की रघुवर दास सरकार के लिए विपक्ष के तौर पर काम किया। बीजेपी के कुछ नेताओं ने भी यह कहा कि भारतीय जनता पार्टी और एजेएसयू का गठबंधन सिर्फ दास की जिद के चलते नहीं हो सका।