नई दिल्ली /खुशबू पाण्डेय : लोकसभा चुनावों को लेकर पंजाब में शिरोमणी अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन अब नहीं होगा। कई दिनों से चल रहे बातचीत पर आज विराम लग गया। पंजाब में चल रहे किसानों के आंदोलन और कई प्रमुख पंथक मसलों के हल न होने के कारण शिरोमणी अकाली दल ने एकला चलो की राह अपनाने का फैसला किया। अकाली दल को डर था कि अगर भाजपा के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव में उतरते हैं तो भाजपा से ज्यादा उनकी पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है। क्योंकि अकाली दल के लिए किसानी मुद्दे और पंथक मसले बहुत अहम हैं। वर्तमान में दोनों ही मुद्दे ज्वलंत हैं। किसान अपनी मांगों को लेकर पंजाब के कई स्थानों पर आंदोलन कर रहे हैं। वहीं पंथक मसलों में बंदी सिहों की रिहाई, प्रोफेसर दविंदर सिंह भुल्लर की सजा पूरी होने के बाद भी आजादी न मिलना, हरियाणा में शिरोमणी कमेटी का टूटना, किसानों की मांगों का पूरा न होना, आदि मसले पंजाब की सियासत के लिए बहुत खास हैं।
-अकाली दल के लिए किसानी मुद्दे और पंथक मसले बहुत अहम
-अकाली दल गठबंधन के लिए तैयार तो था, किसान आंदोलन ने रोका
-अकाली को डर था कि आंदोलन के चलते पार्टी को हो सकता है नुकसान
-प्रोफेसर भुल्लर सहित कई बंदी सिंहों की रिहाई, हरियाणा में शिरोमणि कमेटी का टूटना, किसानों की मांगों का पूरा न होना अहम
-अकाली दल का एक धड़ा चाह रहा था कि भाजपा से न हो गठबंधन
-गठबंधन से भाजपा से ज्यादा अकाली दल को नुकसान का था खतरा : सूत्र
इन मुददों का पूरा होना अकाली दल के लिए भी जरूरी था, इसलिए भाजपा-अकाली में गठबंधन नहीं हो पाया। वैसे भी बेअदबी के मामलों में अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल सार्वजनिक माफी मांफी मांग चुके हैं। लिहाजा टकसाली सिखों एवं अकाली दल के पुराने वर्करों में जो नाराजगी थी वह लगभग दूर को चुकी है। सूत्रों की माने तो अकाली दल के पुराने पदाधिकारी भी यही चाह रहे थे कि अकाली दल का भाजपा से किसी भी सूरत में गठबंधन न हो। बता दें कि केंद्र सरकार के तीन खेती कानूनों को लेकर शिरोमणी अकाली दल ने केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापस लिया था। बाद में एनडीए से भी नाता तोड़ लिया था। हालांकि लंबे चले किसानी आंदोलन के कारण केंद्र सरकार को मजबूरन तीनों कानूनों को वापस लेना पड़ा। बावजूद इसके पंजाब के ज्यादातर किसान अभी भी भाजपा को पसंद नहीं करते। यही कारण है कि अकाली दल ने अपनी राहें अलग करने की योजना पर काम किया। इस बीच भाजपा ने बादल दल से रिश्ता जोडऩे की बजाय पूर्व अकाली नेता सुखदेव सिंह ढींढसा की अगुवाई वाले संयुक्त अकाली दल से गठजोड़ कर लिया। दोनों दलों ने मिलकर पिछले साल जालंधर में हुए लोकसभा के उपचुनाव लड़ा और नतीजा बहुत खराब रहा। भाजपा यहां चौथे नंबर पर रही। हालात बदले और पंथक मसलों पर एक बार फिर अकाली दल एकजुट होने लगा। नतीजन सुखदेव सिंह ढींढसा और बीबी जागीर कौर अकाली दल में वापस आ गए। अकाली दल के एक पुराने टकसाली नेता की माने तो भाजपा से रिश्ता न रखना अकाली दल के लिए शुभ होगा। बता दें कि पंजाब में 13 लोकसभा सीटों के लिए मतदान सात चरणों के चुनाव के अंतिम चरण में, एक जून को होगा। बता दें कि 2019 के चुनाव में पंजाब में भाजपा को 2 सीट होशियारपुर और गुरदासपुर मिली थी। 2 अकाली दल, 1 आप और 8 कांग्रेस के पास थी।
भाजपा ने पंजाब में खेला ‘प्लान बी’
भारतीय जनता पार्टी ने पंजाब में प्लान बी लांच कर दिया। प्लान बी के तहत पार्टी की योजना थी कि पंजाब में जिताऊ कंडीडेटों को अपने दल में लाना और उन्हें लोकसभा चुनाव लड़ाना था। नेता चाहे जिस दल में क्यों न हो। सूत्रों के मुताबिक भाजपा की योजना थी कि अगर अकाली दल से गठबंधन किसी सूरत में नहीं होता तो है तो वह पंजाब के दिग्गज नेताओं को तोड़कर पार्टी से जोड़ा जाए। इस योजना के तहत पार्टी ने तेजी के साथ कई कांग्रेसी नेताओं को भाजपा में शामिल भी कराया। आज मंगलवार को भी इसी योजना के तहत लुधियाना के सांसद रवनीत सिंह बिट्टू (MP Ravneet Singh Bittu) की जॉइनिंग हुई। बिट्टू पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के पोते हैं। बेअंत सिंह को राज्य में आतंकवाद विरोधी अभियान का नायक माना जाता है। पद पर रहते हुए एक आतंकवादी हमले में उनकी हत्या कर दी गई थी। बिट्टू लोकसभा में लुधियाना का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके अलावा पटियाला की सांसद परनीत कौर पिछले सप्ताह ही बीजेपी में शामिल हुई थी।